Saturday, November 4, 2023

गणित और रामायण








































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Wednesday, October 4, 2023

गणित के सर्वोतम ग्रन्थ में लेखक द्वारा ईश् नमन

प्रस्तुत लेख लिखने का आशय सिर्फ उन हुतात्माओं को यह बताने और समझाने का प्रयास मात्र हैं कि किसी शुभ कार्य को करने के पूर्व ईश्वर कि आराधना करना एक सनातन परम्परा है | प्रत्येक धर्म को मानने वाले अपने इष्ट कि आराधना शुभ कार्य के पूर्व करते रहें हैं और इसमें कोई परेशानी या शर्म महसूस करने कि आवश्यकता नहीं है|

आजकल कुछ पढ़े लिखे तथाकथित हिंदूवादी किसी वैज्ञानिक के द्वारा शुभ कार्य के पूर्व मंदिर जाने को ढोंग बताने का प्रयास करते हैं जो कतई अच्छा नहीं है. अपनी परम्परा और धर्म के प्रति आस्था रखना और ईष्ट कि पूजा एक संस्कार को दिखाता है ; जो एक गर्व का विषय है.

यहाँ प्राचीन समय में लिखे गणितीय ग्रंथो में लेखकों द्वारा ईश पूजा उनकी भक्ति को दिखाता है और शुभ कार्य के पूर्व ईश्वर से आशीर्वाद लेना महानता को दर्शाता है. ये सारे ग्रन्थ जिनका यहाँ वर्णन है आज से हजारों वर्ष पूर्व लिखी गयी है.

कुछेक संस्कृत श्लोंकों का अनुवाद करने में मेरे अग्रज श्री सत्येन्द्र सत्यार्थीश्री हरिओम आकाश व मेरे मित्र श्री अतुल गर्ग का सहयोग रहा उनका आभार .


आचार्य पिंगल – छंदशास्त्र के रचियता (200 ईसा पूर्व)

अनादिनिधनं ब्रह्म प्रणम्य विघ्न – नाशकं

व्याख्या पिंगल सूत्रस्य क्रियते प्रीतये बुधाम

आदि और अंत से रहित, विध्नो के नाशक , ब्रह्म को नमस्कार करके विद्वानों कि प्रीत के लिए इस पिंगल सूत्र कि व्याख्या कि जा रही है .  --- 

आचार्य पिंगल द्वारा रचित छंद शास्त्र में सबसे पहले शून्य को परिभाषित किया गया है. इसी पुस्तक में द्विआधारी पद्धति और मेरु प्रस्तार जिसे पास्कल त्रिभुज के नाम से जानते हैं का उल्लेख मिलता है .

भास्कराचार्य – लीलावती (1150 ईस्वी)

प्रीति: भक्तजनस्य यो जनयते विघ्नं विनिघ्नत्

स्मृतस्तं वृन्दारकवृन्दवन्दितपदम् नत्वा मतंगाननम्

पाटीं सदगणितस्य वच्मि चतुर- प्रीतिप्रदां प्रस्फटां

संक्षिप्ताक्षरकोमलामलपदैर्लालित्य-  लीलावतीम्

भक्तजन की प्रीति को जो  उत्पन्न करते हैं जो स्मरण करते ही विध्नो का नाश करते हैं, ऐसे देवताओं के गणों से सेवित पदवाले श्री गणेशजी को नमस्कार करके चत्रुरों को प्रीति देनेवाली. स्फुटलालित्य से भरी, अच्छे  गणित की पाटी लीलावती को कहता हूँ . --- 

लीलावती पुस्तक में गणित और खगोल शास्त्र पर ढेरों प्रश्न हैं . अपनी पुत्री लीलावती को संबोधित करते हुए भास्कराचार्य ने प्रकृति के साथ प्रश्नों को जोड़ने का प्रयास किया है . इसमें 625 श्लोक है और बीजगणित, अंकगणित तथा ज्यामिति के ढेरो प्रश्न हैं .

 श्रीधराचार्य – त्रिशतिका (750 ईस्वी)

नत्वा शिवं स्वविरचितपाट्या गणितस्य सारमुद्घृत्य

लोकव्यवहाराय प्रवक्ष्यति श्रीधराचार्य:

शिव को नमस्कार करके स्वविरचित पाटी गणित से गणित के सार  को उधृत करते हुए श्रीधराचार्य लोकव्यव्हार के लिए उसे निरुपित करेंगे  --- 

त्रिशतिका - तीन सौ श्लोको का एक गणितीय ग्रन्थ है जो मूलतः अंकगणित  और क्षेत्र-व्यवहार से संबंधित हैं. इसी पुस्तक में सबसे पहले द्विघात समीकरण के  मूल निकालने कि विधि दी है जो आज वर्तमान समय में हम प्रयोग करते हैं.

महावीराचार्य --- गणित सार संग्रह (9 वी शदी )

अलङ्ध्यम त्रिजगत्सारं यस्यानन्त चतुष्टयमं

नमस्तस्मै जिनेन्द्राय महावीराय तायिने |

संख्याज्ञान प्रदीपेन जैनेंद्रेण महात्विषा

प्रकाशितं जगत्सर्वं येन तं प्रणमाम्यह्म ||

जिनों के स्वामी, (विश्वासियों के) रक्षक महावीर को नमस्कार, जिनके चार अनंत गुण, जो (सभी) तीनों लोकों में सम्मानित होने के योग्य हैं, अकाट्य (उत्कृष्टता में) हैं। जिनों के उस परम यशस्वी प्रभु को मैं नमन करता हूँ, जिनके द्वारा संख्याओं के ज्ञान का चमकता दीपक बनकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को चमकाया गया है। --- 

महावीर ने अपनी पुस्तक में उन  विषयों की व्याख्या की, जिन पर  आर्यभट और ब्रह्मगुप्त ने विरोध किया था, लेकिन उन्होंने उन्हें और अधिक स्पष्ट रूप से व्यक्त किया। उनका काम बीजगणित के लिए एक अत्यधिक समन्वित दृष्टिकोण है और उनके अधिकांश पाठों में बीजीय समस्याओं को हल करने के लिए आवश्यक तकनीकों को विकसित करने पर जोर दिया गया है।  समबाहु, समद्विबाहु त्रिभुज, समचतुर्भुज; वृत्त और अर्धवृत्त जैसी अवधारणाओं के लिए  शब्दावली की स्थापना के कारण उन्हें भारतीय गणितज्ञों के बीच अत्यधिक सम्मानित किया जाता है. इस पुस्तक में क्रमचय और संचय (permutation / combination) , भिन्न , पुष्पमाल संख्या (palindrome number) के बारे में विस्तार से लिखा है. 

सूर्य सिद्धांत (छठी शदी के आसपास)

अचिन्त्याव्यक्तरूपाय निर्गुणाय गुणात्मने ।

समस्तजगदाधार-मूर्तये ब्रह्मणे नमः ॥ 

यत् स्मृत्याभीष्टकार्यस्य निर्विघ्नां सिद्धिमेष्यति ।

नरस्तं बुद्धिदं वन्दे वक्रतुण्डं शिवोद्भवम् ॥ 

जो अचिंत्य है, अव्यक्त है, निर्गुण है, आत्मा का गुण है, समस्त मूर्त जगत का आधार है ; उस ब्रह्म को नमन है। 

 जिसे स्मरण करके मनुष्य की अभीष्ट कार्यों की सिद्धि होती है, ऐसे शिव के पुत्र, बुद्धि प्रदान करने वाले, वक्रतुंड (गणपति) को मैं नमन करता हूं।

सूर्यसिद्धांत खगोल का एक ग्रन्थ है जिसकी रचना का समय ईसा पूर्व है परन्तु इसकी रचना का ठीक समय नहीं ज्ञात है. त्रिकोणमिति और ज्या सारिणी कि सटीक जानकारी इसी पुस्तक में मिलती है . आर्यभट ने ज्या सारिणी संभवतः इसी पुस्तक से सीखा. सूर्यसिद्धान्त में वर्णित ज्या और कोटिज्या आधुनिक  sine और cosine है । इतना ही नहीं, सूर्यसिद्धान्त के तृतीय अध्याय (त्रिप्रश्नाधिकारः) में ही सबसे पहले स्पर्शज्या (tangent) और व्युकोज्या (secant) का प्रयोग हुआ है। 

 आर्यभट - आर्यभटीय (499 इसवी)

प्रणिपत्यैकमनेकम कं सत्या देवताम् परम ब्रह्म                   

आर्यभटस्त्रीणि गदति गणितं काल क्रियां गोलम् 

भगवान ब्रह्मा को प्रणाम करने के बाद – जो एक और कई हैं -वास्तविक देवता, परम ब्रह्म . आर्यभट्ट तीन अर्थात् गणित, समय की गणना (काल क्रिया) और खगोलीय क्षेत्र (गोला) को निर्धारित करते हैं।

आर्यभट द्वारा 23 वर्ष कि अवस्था में लिखे यह ग्रन्थ आर्यभटीय गणित , खगोल का सर्वोतम ग्रन्थ है जिसमे चार अध्याय इस प्रकार हैं :-

1. दशगीतिका-पाद - इसमें  केवल 13 श्लोक है. 

2. गणित-पाद - खगोलीय  अचर (astronomical constants) तथा ज्या-सारणी (sine table) ; गणनाओं के लिये आवश्यक गणित 

3. काल-क्रिया-पाद - समय-विभाजन तथा ग्रहों की स्थिति की गणना के लिये नियम

4. गोल-पाद - त्रिकोणमितिय  समस्याओं के हल के लिये नियम; ग्रहण  की गणना

 ब्रह्मगुप्त कि पुस्तक ब्रह्मस्फुट सिद्धांत (628 इसवी )

जयति प्रणतसुरासुरकिरीट रत्न प्रभाछुरितपादः

कर्ता जग्दुत्पत्तिस्थितिविलयानां महादेवः ||

ब्रह्मणोक्तं ग्रहगणितं महता कालेन यत खिलीभूतं

अभिधीयते स्फुटम् तज्जिष्णुसुतब्रह्मगुप्तेन ||

संसार के उत्पत्ति और संहार के कर्ता महादेव , जिनके पैर प्रणाम करने के समय  देवता और असुरों के मुकुट में लगे हुए रत्न की कांति से सुशोभित होते हैं, वे सर्वोत्कृष्ट और सर्वदा विजयी हैं |

ब्रह्मा के द्वारा बताया गया ग्रह गणित जो बहुत समय के बाद संसार को प्राप्त हुआ वह जिष्णुपुत्र ब्रह्म गुप्त के द्वारा विस्तार पूर्वक बताया जा रहा है। 

शून्य पर संक्रिया का विस्तार पूर्वक उल्लेख ब्रह्म स्फुट सिद्धांत में है. 25 अध्यायों में विभक्त यह ग्रन्थ गणित में महत्वपूर्ण है. इस  ग्रन्थ में अन्य बातों के अलावा गणित के निम्नलिखित विषय वर्णित हैं-

  • शून्कीय  गणितीय भूमिका की अच्छी समझ है;
  • धनात्मक और ऋणात्मक दोनो प्रकार की संख्याओं के साथ गणितीय संक्रियाएँ करने के नियम दिए गये हैं;
  • वर्गमूल  निकालने की एक विधि;
  • रैखिक समीकरण तथा कुछ वर्ग समीकरणों  के हल करने की विधियाँ मौजूद हैं 

----- अभी लेख जारी है  ----

डॉ राजेश कुमार ठाकुर 

 


Wednesday, August 9, 2023

क्या दो समानांतर रेखाएं अनंत पर मिल सकती हैं ?

 

क्या दो समानांतर रेखाएं अनंत पर मिल सकती हैं ?

अनंत , अपरिमित जैसे शब्द आम बोल चाल में जितना प्रभावशील है गणित में यह उतना ही अधिक उलझन पैदा करने वाला शब्द प्रतीत होता है. भौतिकी (फिजिक्स) में आपने पढ़ा होगा – अवतल दर्पण में जब वस्तु को फोकस पर रखा जाता है तो प्रतिबिम्ब अनंत पर बनती है जो अत्यधिक आवर्धित , वास्तविक और उलटी होती है. पर सवाल है कि क्या प्रतिबिम्ब अनंत पर मिलेगी?











जब रेखाएं समानांतर हो तो क्या ये रेखाएं आपस में अनंत पर मिलेंगी? आज इस अंक में हम इसी विषय पर चर्चा करेंगे? ज्यामिति के जनक – युक्लिड के अनुसार दो समानांतर रेखाएं आपस में कभी भी नहीं मिलेंगी चाहे इसे कितना भी बढाया जाये. इस हिसाब से अनंत पर रेखाओं के मिलने कि बात ही एक कल्पना लगती है.  दो रेखाओं के समानांतर होने के लिए कुछेक शर्ते है जिनमे दोनों रेखाओं के बीच कि लंबवत दुरी हर जगह समान होना एक है,  चाहे रेखा को कितना भी बढाया जाये. साथ ही दो समानांतर रेखाओं के बीच का आन्तरिक कोण हमेशा 180 अंश का होना आवश्यक है. युक्लिड ने अपनी पुस्तक एलिमेंट में ज्यामिति के कई अभिधारणा और अभिगृहीत दिए हैं, इनमे पांचवा अभिधारणा को समानांतर रेखा कि अभिधारणा माना जाता है. इसके अनुसार – यदि एक सीधी रेखा दो सीधी रेखाओं पर गिर कर अपने एक ही ओर दो अन्तःकोण इस प्रकार बनाये कि इन दोनों कोणों का योग मिलकर दो समकोणों से कम हो, तो वे दोनों सीधी रेखाएं अनिश्चित रूप से बढ़ाये जाने पर उस ओर मिलती है जिस ओर योग दो समकोण से कम होता है.

इस हिसाब से दो रेखाएं अनंत पर तब मिलेंगी जब वो समानांतर होने कि शर्ते पूरी ना करें और अगर ऐसा है तो यह निश्चित हो गया कि समानांतर रेखाएं आपस में कभी नहीं मिलेंगी. ये सभी बातें सिर्फ युक्लिड ज्यामिति के लिए सही है. युक्लिड द्वारा प्रतिपादित पहले चार अभिधारणा सामान्य हैं जबकि पांचवा थोडा जटिल. यदि पांचवे को दरकिनार कर दिया जाये तो यह माना जा सकता है कि समानांतर रेखा भी आपस में मिलती है और इस प्रकार गैर- युक्लिड ज्यामिति का जन्म हुआ. यूक्लिड कि पुस्तक एलिमेंट के खंड 1 में 23 वा परिभाषा समानांतर रेखा को लेकर है.


साधारण ज्यामिति जो हम प्रयोग करते हैं में, समानांतर रेखा के अनंत पर मिलने का कोई सवाल ही नहीं है पर एक अन्य प्रकार कि ज्यामिति है जिसे हम प्रोजेक्टिव ज्योमेट्री कहते हैं का प्रयोग – अनंत पर मिलने वाले बिन्दुओं के अध्ययन के लिए किया गया. प्रोजेक्टिव ज्यामिति पॉल डिराक के क्वांटम यांत्रिकी के आविष्कार के लिए महत्वपूर्ण साबित हुई.  कल्पना कीजिए कि आप साधारण यूक्लिडियन तल पर खड़े हैं. आपका सिर तल से लगभग 2 मीटर ऊपर है, इसलिए जब आप नीचे देखते हैं तो तल पर खींची हर रेखा आपको क्षितिज तक फैला हुआ दिखता है. यह एक सामान्य अनुभव है कि यदि हम एक तल पर अनंत समानांतर रेखाओं को खींचते हैं, जिन्हें  हम उन्हें तल के ऊपर एक बिंदु से देखते हैं, तो ऐसा प्रतीत होगा कि वे क्षितिज पर मिलते हैं. यहाँ नीचे आपको तीन चित्र दिखाई दे रहे हैं जो क्रमशः यूक्लीडियन, दीर्घवृत तथा अतिपरवलय ज्यामिति को दर्शाता है. समानांतर अभिधारणा सिर्फ यूक्लिडियन ज्यामिति मॉडल को ही संतुष्ट करता है जबकि अन्य में रेखाएं समानांतर होने के बाबजूद अनंत पर मिल जाती हैं.

इतिहास के झरोखे से :- गणित के राजकुमार कहे जाने वाले गॉस ने ही सर्वप्रथम – गैर यूक्लीडियन ज्यामिति शब्द को गढ़ने का काम किया. रुसी गणितज्ञ निकोलाई इवानोविच लोबाचेवस्की ने 1829-30 में तथा हंगरियन गणितज्ञ बोल्याई ने 1832 में अति परवलय ज्यामिति कि खोज स्वतंत्र रूप में की. रिमान ने 1854 इसवी में रीमन ज्यामिति नामक गणित के रूप में एक नए आयाम कि स्थापना की.



Tuesday, August 8, 2023

वर्गमूल निकालने कि विधि कैसे काम करती है ?




















बज्र गुणन विधि कैसे काम करती है ?

 

ऐसा क्यों होता है – 8

बज्र गुणन (Cross Multiplication)-  क्या , क्यों और कैसे?

बज्र गुणा का प्रयोग आपने भी ऐसे समीकरणों को हल करने में किया होगा जिनमे अनुपात शामिल हैं. इसका प्राथमिक उद्देश्य अज्ञात चर को ज्ञात करने से है और इसके लिए आप बाएं पक्ष के अंश को दायें पक्ष के हर से तथा बाएं पक्ष के हर को दायें पक्ष के अंश से गुणा करके दोनों पक्षों को बराबर कर अज्ञात चर को ज्ञात करने से हैं?

समीकरण 


को हल करने में आप बज्र गुणा विधि का प्रयोग करते हुए 10x = 26 लिखने के पश्चात् x का मान ज्ञात कर लेते हैं. ऐसे दो चर के युगपत समीकरण को हल करने के लिए भी हम वज्र गुणन विधि का प्रयोग करते हैं पर इस अंक में हमारा उद्देश्य सिर्फ एक चर के समीकरण पर रहेगा. वस्तुतः दो भिन्नों/अनुपात को समान करने के लिए भी हम अक्सर वज्र गुणा का प्रयोग करते हैं. यदि आपसे पूछा जाये कि क्या 2/6 = 3/9 के ? तो आप वज्र गुणा का प्रयोग करके कहेंगे चूँकि 2 × 9 = 3 × 6 है इसलिए ये आपस में बराबर हैं. पर सवाल उठता है ये आपस में क्यों बराबर हैं ? इस प्रश्न के उत्तर से आपको वज्र गुणा के मूल सिद्धांत को समझने में मदद मिलेगी. 2/6 का अर्थ आप ये समझिये कि आप एक केक के 6 बराबर टुकड़ों में बाँटना और इसमें से 2 टुकड़े खा लेना वहीँ 3/9 का अर्थ है  एक केक के 9 बराबर टुकड़ों में से 3 को खा लेना. इसे आप दूसरी तरह से समझिये. आपके पास 9 केक हैं और प्रत्येक केक के आपने 6 टुकड़े किये हैं. अर्थात 9 × 6 = 54 टुकड़े.  2 × 9 टुकड़े = 3 × 6 टुकड़े का अर्थ है कुल 54 टुकड़ों में से 18 टुकड़े लेना = 18/54 = 1/ 3 टुकड़े खाना .

 



इतिहास के झरोखे से :- गणित में “त्रैराशिक नियम या तीन का नियम ” को गणित का स्वर्णिम नियम भी कहते हैं जिसमे तीन राशि (परिणाम , फल और ईच्छा) का प्रयोग करके चौथी राशि ज्ञात कि जाती है. उदाहरण :- यदि 4 मीटर कपड़े की कीमत 100 रुपये है, तो 10 मीटर कपड़े की कीमत कितनी होगी? यहां A=4, B=100 और C=10 है इसका उत्तर - 100×10/4 = 250 रुपये. यह नियम वज्र गुणन कि मूल अभिव्यक्ति करता है जहाँ चर को निकालने के लिए तीन राशियों का प्रयोग होता है. भारत में ईसा पूर्व लिखे ग्रंथों कि बात करें तो बक्षाली पोथी में इसका जिक्र है. आर्यभट, ब्रह्मगुप्त , श्रीधर, महावीर , भास्कराचार्य सबने इस नियम का प्रयोग किया है. भारत से यह नियम अरब होते हुए यूरोप गया. यूरोपीय देशों में इसका प्रयोग 15 वी शदी के आस पास दिखता है. दूसरी शदी में चीनी ग्रंथो में इस नियम का जिक्र मिलता है.



गणित और रामायण

पढ़कर आप अपनी प्रतिक्रिया नीचे दिए कमेंट में जरुर दें . अपना नाम लिखना ना भूले